नाटक के भेद
आईये हिंदी नाटक के भेद के बारे में जानें।
हिंदी नाटक के भेद
भारतेंदु ने नाट्य- भेद का विस्तृत विवेचन किया है।
उन्होंने रंगमंच पर प्रस्तुत खेल के तीन मुख्य भेद माने हैं-
"नाटक शब्द की अर्थग्राहिता यदि रंगस्थ खेल में ही की जाए तो हम इसके तीन भेद करेंगे।
- काव्य मिश्र
- शुद्ध कौतुक और
- भ्रष्ट। "
ये भारतेंदु की मौलिक उद्भावनाये हैं।
1. भारतेंदु ने काव्यमिश्र की परिभाषा देते समय जो भेद उपस्थित किए हैं, उनसे यह पता चलता है कि भारतीय नाट्य शास्त्र में उल्लेखित रूपक- भेदों की गणना उन्होंने काव्य मिश्र के अंतर्गत की है।
2. "शुद्ध कौतुक यथा- कठपुतली व खिलौने आदि से सभा आदि का दिखलाना, गूंगे- बहरे का नाटक, बाजीगरी व घोड़े के तमाशे में संवाद, भूत- प्रेतादि की नकल और सभ्यता की अन्याय डिलागियों को कहेंगे।"
3. भ्रष्ट के अंतर्गत भारतेंदु ने सामान्यतः लोकनाटकों का उल्लेख किया है और पारसी नाटकों को उन्हीं के अनुकूल माना गया है-
"भ्रष्ट अर्थात जिनमें अब नाटकत्व नही शेष रहा है।
यथा भांड, इंद्रसभा, रास, यात्रा, लीला और झाँकी आदि। पारसियों के नाटक, महाराष्ट्र के खेल आदि काव्यमिश्र है, लेकिन काव्यहीन होने के कारण वे भी भ्रष्ट समझे जाते हैं।"
अतः कहा जा सकता है कि काव्यमिश्र नाटक ही भारतेंदु की दृष्टि से शुद्ध व श्रेष्ठ नाटक है।
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